जालसाज़ी करती कंपनियों
को पुलिस सुरक्षा, बहाना! कानूनी नियमों का...
क्या हमें संगठित
होकर इनका विरोध नहीं करना चाहिये?
आज हमारे देश
में कंपनियों की बाढ आती चली जा रही है| एक ज़माना था जब हमारे शहर के नुक्कड़ पर छोटी-छोटी
किराने के सामान की दुकानें(जनरल स्टोर्स) हुआ करती थीं, जहाँ एक अच्छे से अच्छा पढा
लिखा इंसान भी जाकर जब सामान खरीदता था तो सस्ते से सस्ता सामान देखकर मोल-भाव करते
हुये कम से कम दाम पर लेने की कोशिश करता था चाहे उसके लिये दुकानदार से कितनी ही बहस
क्यूँ न करनी पड़े| आज हालात यह है कि इन कंपनियों ने (मॉलों के रूप में) चुपके से हमारी
जीवनशैली में कुछ इस तरीके से कदम रखा है कि अधिकांशतः मध्यम वर्गीय परिवार इन मॉलों
की उस चकाचौधं में खो गया है कि उसे यही पता नहीं चल रहा कि कभी वे 2/- रु. बचाने के
चक्कर में क्षेत्र के दुकानदारों से कितनी बहस करते थे जबकि इन मॉलों में 2/- रु. से 4/- रु. तो इस प्रकार जेब से निकाल लिये जाते हैं(खरीदे गये सामान की कीमत क्षेत्रिय
दुकानदारों की अपेक्षा अधिक होने पर भी) कि हम देखते, समझते-बूझते हुये भी उसका विरोध
करने में "शर्म आती है" यह सोचते हुए मॉल की कीमत चुका देते है|
अगर क्षेत्रीय
दुकान से सामन लेने पर किसी भी प्रकार का सामान में दोष होता था तो लड़-झगड़ कर उसे वापिस
करवा लेते थे जबकि इन कंपनियों द्वारा बेचे जाने वाले खराब सामान को भी हम बिना किसी
विरोध के सहन कर लेते हैं और सोचते हैं कि कौन इस कंपनियों से उलझे?
केबल टी.वी.
में चेनल अगर बराबर नहीं आ रहा होता है तो हम केबल ऑपरेटर के पैसे रोक लेते थे जबकि
इन बड़ी कंपनियों के Set-Top Box से चलने वाले चैनल अगर बराबर नहीं चलती है तो हमें
चुपचाप बैठे रहना पड़ता है कि हम कहाँ इन बड़ी कंपनियों से लड़ने जायें? दूध कभी हम डेरी
पर लेने जाते थे तो दूध दूहने से पहले हम उस बाल्टी को जरूर देखते थे कि कहीं उसमें
पानी तो नहीं है? जबकि आज इन बड़ी कंपनियों द्वारा खुलेआम गरीब ग्वालों से लिया हुआ
बिना पानी वाले दूध का मक्खन निकालकर और उसमें पानी मिलाकर हमें बेचा जाता है, जिसे
हम चुपचाप सिर झुकाये लेने को मजबूर हैं अगर कभी दूध फट जाये तो दुकानदार कहता है कि
तुम्हें जो करना है कर लो हम तो ऐसा ही बेचेंगे|
आज देखेंगे तो
हम सब के साथ यह घटनायें आम हो चुकी हैं और हम उसके आदी होते जा रहे हैं इस लूटामारी
का मुख्य कारण है इन रईसों द्वारा आम नागरिक के रूपयों के बलपर बड़ी-बड़ी कंपनियाँ बनाकर
वातानुकूलित कार्यालय में बैठकर हुकुम चलाना, जिनकी वजह से